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कबीर-ग्रंथावली

विष के बन मैं घर किया,सरप रहे लपटाइ ।
ताथैं जियरै डर गह्या,जागत रैणि बिहाइ ।। २८ ॥
कबीर सब सुख राम है,और दुखा की रासि। .
सुर नर मुनियर असुर सब,पड़े काल की पासि ॥२६ ॥
काची काया मन अथिर,थिर थिर कांम करंत ।
ज्यूं ज्यूं नर निधड़क फिरै,त्यूं त्यूं काल हसंत ॥ ३० ॥
रोवणहारे भी मुए,मुए जलावणहार ।
हा हा करते ते मुए,कास नि करौं पुकार ॥ ३१ ॥
जिनि हम जाए ते मुए,हम भी चालणहार ।
जे हम को आगै मिले,तिन भी बंध्या भार।।३२।।७२५॥

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(४७) सजीवनि कौ अंग


जहां जुरा मरण ब्यापै नहीं,मुवा न सुणिये कोइ ।
चलि कबीर तिहि देसड़ै,जहां बैद विधाता होइ ॥१॥
कबीर जोगी बनि बस्या,षणि खाये कँद मूल ।
नां जाणौं किस जड़ी थैं,अमर भये असथूल ॥ २ ॥
कबीर हरि चरणौं चल्या,माया मोह थैं टूटि ।
गगन मँडल आसण किया,काल गया सिर कूटि ॥ ३ ॥
यहु मन पटकि पछाडि लै,सब पापा मिटि जाइ ।
पंगुल है पिव पिव करै,पींछैं काल न खाइ ॥ ४॥
कबीर मन तीषा किया,बिरह लाइ षरसाँण ।
चित चूर्णं मैं चुभि रह्या,तहाँ नहीं काल का पांण ॥५।।


( ३० ) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
बेटा जाया तौ का भया,कहा बजावै थाल ।
श्रावण जांणां है रहा,ज्यौं कीड़ी कानाल५१॥
( १ ) ख-जुरा मीच
( १ ) ख०-मन तीषा भया ।