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कबीर-ग्रंथावली

( ५१ ) दया निरबैरता कौ अंग


कबीर दरिया प्रजल्या,दाझैं जल थल झोल ।
बस नांहीं गोपाल सौं,बिनसै रतन अमोल ॥ १ ॥
ऊँनमि विआई बादली,बर्सण लगे अँगार ।
उठि कबीरा धाह दे,दाझत है संसार ॥ २ ॥
दाध बली ता सब दुखी,सुखी न देखौं कोइ ।
जहां कबीरा पग धरै,तहां टुक धीरज होइ ।।३।। ७५५ ॥

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( ५२ ) सुंदरि कौ अंग


कबीर सुंदरि यों कहै,सुणि हो कंत सुजांण ।
बेगि मिलौ तुम अाइ करि,नहीं तर तजौ परांण ॥ १ ।।
कबीर जे को सुंदरी,जांणि करै विभचार ।
ताहि न कबहूँ आदरै,प्रेम पुरिष भरतार ।। २ ।। .
जे सुंदरि सांईंं भजै,तजै आन की आस ।
ताहि न कबहूं परहरै,पलक न छाड़ै पास ॥ ३ ॥

(१२-२) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
दाध बली ता सब दुखी,सुखी न दीसै कोइ।
को पुत्रा को बंधवां,को धणहीना होइ ॥ ३॥
(५२-३) इसके आगे ख० प्रति में ये दोहे हैं-
हूं रोऊं संसार कौ,मुझे न रोवै कोइ ।
मुझकौं सोई रोइसी,जे रामसनेही होइ ॥५॥
मूरों कौं का रोइए,जो अपणैं घर जाइ।
रोइए बंदीवान को,जो हाटैं हाट बिकाइ॥६॥
बाग विछिटे म्रिंग लौ,तिहिं जिनें मारै कोह।
आपैं हीं मरि जाइसी,डावां डोला होइ ॥७‌‌।।