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कस्तूरियां मृग कौ अंग

इस मन कौं मैदा करौं,नान्हां करि करि पीसि ।
तब सुख पावै सुंदरी,ब्रह्म झलकै सीम ॥ ४ ॥
दरिया पारि हिंडोलनां,मेल्या कंत मचाइ ।
सोई नारि सुलषणीं,नित प्रति झूलण जाइ ॥ ५ ॥७६०॥

 

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( ५३ )कस्तूरियां मृग कौ अंग


कस्तूरी कुंडलि बसै,मृंग ढूंढै बन मांहिं ।
ऐसैं घटि घटि रांम है,दुनियां देखै नांहिं ॥१॥
कोइ एक देखै संत जन,जांकै पांचूं हाथि ।
जाकै पांचूं बस नहीं,ता हरि संग न साथि ॥ २ ॥
सो सांईं तन मैं बसै,भ्रंम्यौं न जांणैं तास ।
कस्तूरी के मृग ज्यूं,फिरि फिरि सूंघै घास ॥ ३ ॥
कबीर खोजी रांम का,गया जु सिंघल दीप ।
रांम तौ घट भीतरि रंमि रहया,जौ आवै परतीत ॥४ ॥
घटि बधि कहीं न देखिये,ब्रह्म रह्या भरपूरि ।
जिनि जांन्यां तिनि निकटि हे,दूरि कहैं ते दूरि ॥ ५ ॥
मैं जांण्यां हरि दूरि है,हरि रह्या सकल भरपूरि ।
आप पिछांणैं बाहिरा,नेड़ा ही थैं दूरि ॥ ६ ॥
तिणकैं ओल्है रांम है,परबत मेरैं भांइ ।
सतगुर मिलि परचा भया,तब हरि पाया घट मांहिं ॥७॥

( ६ ) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
कबीर बहुत दिवस भटकत रहया,मन से विषै बिसाम ।
ढूंढत-ढूंढत जंग फिरथा,तिण कै ओल्है रांम ॥७॥