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कबीर-ग्रंथावली

रांम नांम तिहूँ लोक मैं,सकल रह्या भरपुरि ।
यहु चतुराई जाहु जलि,खोजत डौलें दूरि ॥८॥
ज्यूं नैनूं मैं पुतली,त्यूं खालिक घट मांहिं ।
मूरिख लोग न जांणहीं,बाहरि ढूंढण जांहिं ॥६॥ ७६६

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( ५४ ) निंद्या कौ अंग


लोग बिचारा नींदई,जिनह न पाया ग्यांन ।
रांम नांव राता रहै,तिनहुं न भावै अांन ॥ १ ॥
दोख पराये देखि करि,चल्या हसंत हसंत ।
अपनैं च्यंति न आवई,जिनकी आदि न अंत ॥ २ ॥
निंदक नेड़ा राखिये,आंगणि कुटी बंधाइ ।
बिन साबण पांणीं बिना,निरमल करै सुभाइ ॥ ३ ॥
न्यंदक दूरि न कीजिये,दीजै आदर मांन ।
निरमल तन मन सब करै,बकि बकि अंनिहिं आंन ॥४॥
जे को नींदै साध कूं,संकटि आवै सोइ ।
नरक मांहिं जामै मरै,मुकति न कबहूँ होइ ॥ ५ ॥
कबीर घास न नीदिये,जो पाऊं तलि होइ ।
उड़ि पडै जब आंखि मैं,खरा दुहेला होइ ।। ६॥


(५३-८) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है--
हरि दरियां सूभर भरिया,दरिया वार न पार ।
खालिक बिन खाली नहीं,जेवा सूई संचार ॥ १०॥
(१) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
निंदक तौ नांकी बिना,सोहै न कट्यां मांहि ।
साधू सिरजनहार के,तिनमैं सोहै नाहिं ॥२॥
(६) ख०-दूसरी पंक्ति-
नरक मांहि जामैं मरे,मुकति न कबहूँ होइ ।