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निगुणां कौ अंग

आपन यौं न सराहिए,और न कहिये रंक।
नां जांणौं किस विष तलि,कूड़ा होइ करक ॥ ७ ॥
कबीर आप ठगाइये,और न ठगिये कोइ ।
आप ठग्यां सुख ऊपजै,और ठग्यां दुख होइ ॥८॥
अब कै जे सांईं मिले,तौ सब दुख आषों रोइ ।
चरनूं ऊपरि सीस धरि,कहूँ ज कहणां होइ ॥६॥ ७७८।।

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( ५५ ) निगुणां कौ अंग


हरिया जांणै रूपड़ा,उस पांणीं का नेह ।
सुका काठ न जांणईं',कबहूँ बूठा मेह ॥ १ ॥
झिरिमिरि झिरिमिरि बरषिया,पांहण ऊपरि मेह ।
माटी गलि सैंजल भई,पांहण वोही तेह ॥ २ ॥
पार ब्रह्म बूठा मोतियां,घड़ बांधी सिषरांह ।
सगुरां सगुरां चुणि लिया, चूक पड़ी निगुरांह ॥ ३
कबीर हरि रस बरषिया,गिर डूंगर सिषरांह ।
नीर मिवांणां ठाहरै,नांऊँ छा परड़ांह ।। ४ ॥
कबीर मूंडठ करमियां,नष सिष पाषर ज्यांह ।
बहिणहारा क्या करै,बाण न लागै त्यांह ॥ ५॥
कहत सुनत सब दिन गए,उरझि न सुरझया मन ।
कहि कबीर चेत्या नहीं,अजहूँ सुपहला दिन ।। ६ ।

( ७ ) आपण यौं न सराहिए,पर निंदिए न कोइ ।
अजहूं लांबा यौहड़ा,ना जाणौं क्या होह॥८॥
( ६ ) यह दोहा ख० प्रति में नहीं है।
( ६ ) यह दोहा ख० प्रति में नहीं है।