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साषीभूत कौ अंग

करता केरे बहुत गुंण,भौगुंण कोई नांहिं ।
जे दिल खोजों आपणीं,तो सब औगुण मुझ मांहिं ॥३॥
औसर बोता अलपतन,पीव रह्या परदेस ।
कलंक उतारौ केसवा,भांनौं भरंम अंदेस ॥ ४ ॥
कबीर करत है बीनती,भौसागर कै ताईं।
बंदे उपरि जोर होत है,जंम कूं बरजि गुसाईं ॥५॥
हज काबै है है गया,कंती बार कबीर ।
मीरां मुझ मैं क्या खता,मुखां न बोले पीरा॥ ६॥
ज्यूं मन मेरा तुझ सौं,यौं जे तेरा होइ ।
ताता लोहा यौं मिलै,संधि न लखई कोइ ॥ ७ ॥७६७॥

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'(५७ ) साषीभूत कौ अंग


कबीर पूछै रांम कूं,सकल भवनपति-राइ ।
सबही करि अलगा रहै।,सो बिधि हमहिं बताइ ॥ १ ॥
जिहि बरियां सांईं मिलै,तास न जांणैं और ।
सबंकू सुख दे सबद करि,अपणीं अपणों ठौर ।। २ ।।
कबीर मन का बाहुला,ऊंडा बहै असोस ।
देखत हीं दह मैं पड़ै,दई किसा की दोस ॥ ३॥८०८ ॥

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(५६-३) इसके आगे ख० प्रति में यह दोहा है-
बरियां बीती बल गया,अरु बुरा कमाया ।
हरि जिनि छाडै हाथ थै,दिन नेड़ा पाया ॥३॥
(१६-१) ख०-कबीर बिचारा करै बिनती।