पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१८९

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पदावली

रांम मोहि तारि कहाँ लै जैहो ।
सो बैकुंठ कहा धूं कैसा,करि पसाव मोहि दैहो । टेक॥
जे मेरे जीव दोइ जानत है।,तौ मोहि मुकति बताओ।
एकमेक रमि रह्या सबनि मैं,तौ काहे भरमावौ ॥
तारण तिरण जबै लग कहिये,तब लग तत न जांनां ।
एक रांम देख्या सबहिन मैं,कहै कबीर मन मांनां ॥ ५२ ॥

सोहं हंसा एक समान,काया के गुंण आंनिहिं आंन ॥टेक॥
माटी एक सकल संसारा,बहु विधि भांडे घड़े कुंभारा ।।
पंच बरन दस दुहिये गाइ,एक दूध देखा पतियाइ ।
कहै कबीर संसा करि दूरि,त्रिभवननाथ रह्या भरपूर ।। ५३ ॥

प्यारे रांम मनहीं मनां ।
कासूं कहूं कहन की नाही,दूसर और जनां ॥ टेक ॥
ज्यूं दरपन प्रतिब्यंब देखिए,आप दवासूं सोई ।
संसौ मिट्यौ एक को एकै,महा प्रलै जब होई ।।
जौ रिझऊं तो महा कठिन है,बिन रिझयैं थैं सब खोटी ।
कहै कबीर तरक दोइ साधै,ताकी मति है मोटी ॥ ५४ ॥

हंम तौ एक एक करि जांंनां ।
दोइ कहैं तिनहीं कौं दोजग,जिन नांहिन पहिचांनां॥टेक ।
एकै पवन एक ही पांनीं,एक जोति संसारा ।
एक ही खाक घड़े सब भांडे,एकही सिरजनहारा ।।
जैसे बाढो काष्ट ही काट,अगिनि न काटै कोई ।
मब घटि अंतरि तूही व्यापक,धरै सरूपैं सोई ॥
माया मोहे अर्थ देखि करि,काहे कू गरबांनां ।
नरभै भया कछू नहीं ब्यापै,कहै कबीर दिवांनां ॥ ५५ ॥