पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०६
कबीर-ग्रंथावली

अरे भाई दोइ कहां सो मोहि बतावौ,
बिचिही भरम का भेद लगावौ ॥ टेक ॥

जोनि उपाइ रची द्वै धरनीं,दीन एक बीच भई करनीं ॥
रांम रहीम जपत सुधि गई,उनि माला उनि तसबी लई ।।
कहै कबीर चेतहु रे भौंदू,बोलनहारा तुरक न हिंदू ॥ ५६ ॥

ऐसा भेद बिगूचन भारी ।।
बेद कतेब दोन अरू दुनियां,कौंन पुरिष कौन नारी ॥ टेक ।

एक बूंद एक मल मूतर,एक चांम एक गूदा ।
एक जोति थैं सब उतपनां,कौंन बॉम्हन कौंन सूदा ॥
माटी का प्यंड सहजि उतपनां,नाद रु ब्यंद समांनां ।
बिनसि गयां थैं का नांव धरिहौ,पढ़ि गुनि भ्रंम जांनां ।।
रज गुन ब्रह्मा तम गुन संकर,सत गुन हरि है सोई। .
कहै कबीर एक रांम जपहु रे,हिंदू तुरक न कोई ॥ ५७ ।।

हंमारै रांम रहीम करीमा केसो,अलह रांम सति साई ।
बिसमिल मेटि बिसंभर एकै,और न दूजा कोई ।।टेक।।

इनकै काजी मुलां पीर पैकंबर,रोजा पछिम निवाजा।
इनकै पूरब दिसा देव दिज पूजा,ग्यारसि गंग दिवाजा ।।
तुरक मसीति देहु रै हिंदू,दहूंठां रांम खुदाई ।
जहाँ मसीति देहुरा नांही,तहां काकी ठकुराई ।।
हिंदू तुरक दोऊ रह तूटी,फूटी अरू कनराई ।
अरध उरध दसहूँ दिस जित तित,पूरि रह्या रांम राई ।।
कहै कबीरा दास फकीरा,अपनीं रहि चलि भाई ।
हिंदू तुरक का करता एकै,ता गति लखी न जाई ॥ ५८ ॥