पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१९५

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पदावली

पूरा मिल्या तबैं सुष उपज्यौ,तन की तपति बुझानी।
कहै कबीर भवबंधन छूटै,जोतिहि जोति समाना ।। ७२ ॥

छाकि परयो पातम मतिवारा,
पीवत रांम रस करत बिचारा ।। टेक ॥
बहुत मोलि महँगै गुड़ पावा,लै कसाब रस राम चुवावा ।।
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा, मांगि मांगि रस पीवै बिचारा ॥
कहै कबीर फाबी मतिवारी, पीवत राम रस लगी खुमारी ॥७३॥

बोली भाई राम की दुहाई ।
इहि रसि सिव सनकादिक पीवत अजहूँ न अघाई ॥टेक॥
इला प्यं गुला भाठी कीन्हीं,ब्रह्म अगनि परजारी ।
ससि हर सूर द्वार दस मूंदे,लागी जोग जुग तारी ।।
मन मतिवाला पीवै रांम रस.दूजा कछू न सुहाई।
उलटी गंग नीर बहि आया,अंमृत धार चुवाई ।।
पंच जने सो सँग करि लीन्हें,चलत खुमारी लागी।
प्रेम पियालै पीवन लागे,सोवत नागिनी जागी ।
सहज सुंनि मैं जिनि रस चाष्या,सतगुर थैं सुधि पाई।
दास कबीर इहि रसि माता,कबहूँ उछकि न जाई ।। ७४ ॥

रांम रस पाईया रे,ताथैं बिपरि गये रस और ।। टेक ।।
रे मन तेरा को नहीं,खैंचि लेइ जिनि भार ।
विरषि बसेरा पंषि का,ऐसा माया जाल ।।
और मरत का रोइए,जो आया थिर न रहाइ ।
जो उपज्या सो विनसिहै,ताथैं दुख करि मरै बलाइ ॥
जहां उपज्या तहां फिरि रच्या रे,पीवत मरदन लाग ।
कहै कबीर चित चेतिया,ताथैं रांम सुमरि बैराग ॥ ७५ ।।