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कबीर-ग्रंथावली

रांम चरन मनि भाए रे।।
अस ढरि जाहु रांय के करहा,प्रेम प्रीति ल्यौ लाये रे॥टेक॥
आँब चढ़ी अंबली रे अंबली,बबूर चढ़ी नग बेली रे।
द्वै थर चढ़ि गयौ रांड कौ करहा,मनह पाट की सैलीरे॥
कंकर कूई पतालि पनियां,सूनैं बूंद बिकाई रे।
बजर परौ इहि मथुरा नगरी,कांन्ह पियासा जाई रे।।
एक दहिड़िया दही जमायौ,दुसरी परि गई साई रे।
न्यूंति जिमांऊं अपनौं करहा,छार मुनिस की डारी रे॥
इहि बंनि बाजै मदन भेरि रे,उहि बंनि बाजै तूरा रे।
इहि बंनि खेलै राही रुकमनि,उहि बंनि कान्ह अहीरा रे॥
आसि पासि तुरसी कौ बिरवा,माहिं द्वारिका गांऊं रे।
तहां मेरौ ठाकुर रांम राइ है,भगत कबीरा नाऊँ रे॥७६।।


थिर न रहै चित थिर न रहै,च्यंतामणि तुम्ह कारणि हो।
मन मैले मैं फिरि फिरि आहौं,तुम सुनहुँ न दुख बिसरावन हो।।टेक॥
प्रेम खटोलवा कसि कसि बांध्यौ,बिरह बांन तिहि लागू हो।
तिहि चढ़ि इंहऊँ करत गवंसियां,अंतरि जमवा जागू हो।
महरू मछा मारि न जांनैं,गहरै पैठा धाई हो।
दिन इक मगरमछ लै खैहै,तब को रखिहै बंधन भाई हो॥
महरू नांम हरइये जांनैं,सबद न बूझै बौरा हो।
चारै खाइ सकल जग खायौ,तऊ न भेटि निसहुरा हो।
जौ महाराज चाही महरईये,तौ नाथौ ए मन बौरा हो।
तारी लाइकैं सिष्टि बिचारौ,तब गहि भेटि निसहुरा हो।।
टिकुटी भई कांन्ह कै कारणि,भ्रंमि भ्रंमि तीरथ कीन्हां हो।
सो पद देहु मोहि मदन मनोहर,जिहि पदि हरि मैं चीन्हाँ हो।।