पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/१९७

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पदावली

दास कबीर कीन्ह अस गहरा, बूझ कोई महरा हो।
यहु संसार जात मैं देखौं, ठाढा रहै। कि निहुरा हो ॥ ७७ ॥

बीनती एकरांम सुंनि थोरी,अब न बचाइ राखि पति मोरी।।टेक।।
जैसे मंदला तुमहि बजावा, तैसें नाचत मैं दुख पावा ॥
जे मसि लागी सबै छुड़ावी, अब मोहि जिनि बहुरूपक छावा ।।
कहै कबीर मेरी नाच उठावी, तुम्हारे चरन कवल दिखलावा ॥७॥

मन थिर रहै न घर है मेरा, इन मन घर जारे बहुतेरा ॥टेक।।
घर तजि बन बाहरि कियौं बास, घर बन देखौं दोऊ निरास ।।
जहां जांऊं तहां सोग संताप, जुरा मरण को अधिक बियाप ।
कहै कबीर चरन ताहि बंदा, घर मैं घर दे परमानंदा ॥ ७६ ||

कैसै नगरि करौं कुटवारी, चंचल पुरिष बिचषन नारी। टेक।।
बैल बियाइ गाइ भई बांझ, बछरा दूहै तीन्यूं सांझ ।।
मकड़ी परि माषी छछि हारी, मास पसारि चील्ह रखवारी ॥
मूसा खेवट नाव बिलइया, मीडक सोवै साप पहरइया ।
नित उठि स्याल स्यौंघ झूझ, कहै कबीर कोई बिरला बूझ।।८०

भाई रे चूंन बिलूटा खाई ,
'बाघनि संगि भई सबहिन के, खसम न भेद लहाई ।। टेक ॥
सब घर फोरि बिलूटा खायौ, कोई न जानें भेव ।
खसम निपूतौ प्रांगणि सूतौ, रांड न देई लेव ॥
पाड़ोसनि पनि भई बिरांनी, मांहि हुई घर घालै । .
पंच सखी मिलि मंगल गांव, यहु दुख याकौं सालै ॥
द्वद्वदीपक घरि घरि जोया, मदिर सदा अँधारा ।
घर घेहर सब पाप सवारथ, बाहरि किया पसारा ॥