माया जल थलि माया प्राकासि, माया ब्यापिरही चहूँ पासि ॥
माया माता माया पिता, प्रति माया प्रस्तरी सुता ॥
माया मारि करै ब्यौहार, कहै कबीर मेरे राम अधार ।। ८४ ॥
ग्रिह जिनि जानौं रूड़ो रे।
कंचन कलस उठाइ लै मदिर, राम कहे बिन धूरौ रे ॥ टेक ॥
इन ग्रिह मन डहके सबहिन के, काहू को परयौ न पूरी रे ।
राजा राणां राव छत्रपति, जरि भये भसम को कूरौ रे ।
सबथै नीकी संत म उलिया, हरि भगतनि को भेरी रे ।
गोबिंद के गुन बैठे गैहैं, खैहैं टूको टेरौ रे ।
ऐसे जांनि जपा जग-जीवन, जम सूं तिनका तोरी रे ।।
कहै कबीर राम भजबे कों, एक प्राध कोई सूरौ रे ॥८॥
रंजसि मीन देखि बहु पानों,
काल जाल की खबरि न जांनीं ।। टेक ॥
गारै गरब्यौ औघट घाट,
सो जल छाडि बिकानौं हाट ।
बंध्यौ न जानै जल उदमादि,
कहै कबीर सब मोहे स्वादि ।। ८६ ॥
काहे रे मन दह दिसि धावै,
बिषिया संगि संतोष न पावै ।। टेक ॥
जहां जहां कलपै तहां तहां बंधनां,
रतन की थाल किया तेरधनां ।।
जो मैं सुख पईयत इन माहीं,
तो राज छाडि कत बन की जांहीं ।
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