पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
११६
कबीर-ग्रंथावली


प्रानंद सहत तजा बिष नारी, अब क्या झी पतित भिषारी ।। कहै कबीर यहु सुख दिन चारि, तजि बिषिया भजि चरन मुरारि ॥ ८७ ॥ जियरा जाहि गा मैं जानां ।। जो देख्या सो बहुरि न पेप्या, माटी सू लपटांनां ।। टेक , बाकुल बसतर किता पहरिबा, का तप बनलंडि बामा । कहा मुगधरे पाहन पूज, काजल डारै गाता ।। कहै कबीर सुर मुनि उपदेसा, लोका पंथि लगाई । सुनौं संता सुमिरी भगत जन, हरि बिन जनम गवाई ।। ८८॥ हरि ठग जग को ठगारी लाई, . हरि कै बियोग कैसे जीऊँ मेरी माई ।। टेक ॥ कौन पुरिष को काकी नारी, अभि-अंतरि तुम्ह लेहु बिचारी ।। कौन पूत को काकी बाप, कौन मरै कौन करै संताप ॥ कहै कबीर ठग सौ मनमानां, गई ठगौरी ठग पहिचांनां ।। ८६ ॥ साई मेरे साजि दई एक डोली, हस्त लोक अरू मैं तें बोली ।। टेक ।। इक झंझर सम सूत खटोला, त्रिस्ना वाव चहूँ दिसि डोला ।। पांच कहार का मरम न जाना, एकै कह्या एक नहीं मानां ॥