पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२०१

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पदावली


भूभर घाम उहार न छावा, नैहरि जात बहुत दुख पावा ॥ कहै कबीर बर बहुं दुख सहिये, रांम प्रीति करि संगही रहिये ॥ १० ॥ बिनसि जाइ कागद की गुड़िया, जब लग पवन तबै लगै उड़िया ॥ टेक ॥ गुड़िया को सबद अनाहद बोले, खसम लिये कर डोरी डोले ॥ पवन थक्यौ गुड़िया ठहरांनी, सीस धुनै धूनि रोवै प्रांनी ।। कहै कबीर भजि सारंग पानी, नहीं तर ढहै बैंचा तानी ।।६।। मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूद विनसि जाइ छिन मैं, गरब करै क्या इतना ॥टेक॥ माटी खोदहिं भींत उसारै, अंध कहै घर मेरा। प्रावै तल व बांधि लै चालै, बहुरि न करिहै फेरा ॥ खोट कपट करि यहु धन जारपी, लै धरती मैं गाड्यौ । रोक्यौ घटि सास नहीं निकसै, ठौर ठौर सब छाड्यौ । कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै । गये पषनियां उझरी बाजी, को काहू के प्रावै ॥२॥ • झूठे तन को कहा रबइये, मरिये तो पल भरि रहण न पइये ॥ टेक ॥ . षीर षाड़ घृत प्य ड संवारा, प्रान गये ले बाहरि जारा ॥ चोवा चंदन चरचत अंगा, __सो तन जरै काठ के संगा॥ (१०) ख०-कहै कबीर बहुत दुख सहिए ।