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कबीर-ग्रंथावली

धंन कै गरवि रांम नहीं जांनां,नागा है जंम पैं गुदरांनां ।।
कहै कबीर चेतहु रे भाई,हंस गया कछु संगि न जाई ॥६६।।

  काहे कूं माया दुख करि जोरी,
हाथि चूंन गज पांच पछेवरी ।। टेक ॥
नां को बंध न भाई साथी,बांधे रहे तुरं गम हाथी ।
मैड़ी महल बावड़ी छाजा,छाड़ि गये सब भूपति राजा ॥
कहै कबीर रांम ल्यौ लाई,धरी रही माया काहू खाई ॥१००॥

  माया का रस पांण न पावा,
तब लग जम बिलवा है धावा ।। टेक ॥
अनेक जतन करि गाड़ि दुराई,काहू सांचो काहू खाई ।।
तिल तिल करि यहु माया जोरी,चलती बेर तिणां ज्यूं तोरी ॥
कहै कबीर हूं ताका दास,माया मांहैं रहै उदास ॥ १०१ ॥

  मेरी मेरी दुनियां करते,मोह मछर तन धरते। .
  आगैं पीर मुकदम होते,वै भी गये यौं करते ।। टेक ॥
किसकी ममां चचा पुंनि किसका,किसका पंगुड़ा जोई।
यहु संसार बजार मंड्या है,जानेंगा जन कोई ॥
मैं परदेसी काहि पुकारौं,इहां नहीं को मेरा ।
यहु संसार इढि सब देख्या, एक भरोसा तेरा ॥
खांहि हलाल हरांम निवारै,भिस्त तिनहु कौं होई।
पंच तत का मरम न जांनैं,दोजगि पड़िहै सोई॥
कुटंब कारणि पाप कमावै,तूं जांणै घर मेरा ।
ए सब मिले आप सवारथ,इहां नहीं को तेरा॥


(१००)ख-मैडी महल अरु सोभित छाजा।