पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२०९

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पदावली

सत संगति मति मन करि धीरा,
सहज जांनि रांमहि भजै कबीरा ॥ ११५ ।।

 रांम कहौ न अजहूँ कंते दिनां,
जब है है प्रांन प्रभू तुम्ह लीनां ।। टेक ॥
भौ भ्रमत अनेक जन्म गया,तुम्ह दरसन गोव्यंद छिन न भया।।
भ्रम्य भूलि परयौ भव सागर,कछू न बसाइ बसोधरा ॥
कहै कबीर दुखभंजनां,करौ दया दुरत निकंदनां ।। ११६ ।।

 हरि मेरा पीव माई,हरि मेरा पीव,
हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव ।। टेक ॥
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया,
रांम बड़े मैं छुटक लहुरिया ।
किया स्यंगार मिलन कै तांई,
काहे न मिलौ राजा रांम गुसांई ।।
अब की बेर मिलन जो पांऊ.
कहै कबीर भौ-जलि नहीं आंऊं ।। ११७ ।।

 रांम बांन अन्ययाले तीर,जाहि लांगे सो जांनैं पीर ।।टेक ॥
तन मन खोजौं चोट न पांऊ',ओषद मूली कहां घसि लांऊ ।
 एकंहीं रूप दीसै सब नारी,नां जानी को पीयहि पियारो॥
कहै कबीर जा मस्तकि भाग, नां जांनूं काहू देइ सुहाग।।११८॥

 आस नहीं पुरिया रे,रांम बिन को कर्म काटणहार.।टेक ॥
जद सर जल परिपुरता,चात्रिग चितह उदास ।
मेरी बिषम कर्म गति हैं परी,ताथैं पियास पियास ।।
सिध मिलै सुधि ना मिलै,मिलै मिलावै सोइ ।