पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२११

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पदावली

सुनि मंडल मैं सोधि लै,परम जोति परकास ।
तहूवां रूप न रेष है,बिन फूलनि फूल्यौ रे अकास ॥
कहै कबीर हरि गुणं गाइ लै,सत संगति रिदा मंझारि ।
जो सेवग सेवा करै,ता संगि रमैं रे मुरारि ॥ १२१ ॥

 मन रे हरि भजि हरि भजि हरि भजि भाई ।
 जा दिन तेरो कोई नांहीं,ता दिन रांम सहाई ॥ टेक ।।
तंत न जांनूं मंत न जांनूं,जांनूं सुंदर काया।
मीर मलिक छत्रपति राजा,ते भी खाये माया ।
बेद न जांनूं भेद न जांनूं,जांनूं एकहि रांमां ।
पंडित दिसि पछिवारा कीन्हां,मुख कीन्हौं जित नांमां ॥
राजा अंबरीक कै कारणि,चक्र सुदरसन जारै ।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसौ,भगत की सरन ऊबारै ॥ १२२ ।।

रांम भणि रांम भणि रांम चिंतामणि,
भाग बड़े पायौ छाई जिनि ।। टेक ॥
असंत संगति जिनि जाइ रे भुलाइ,
साध संगति मिलि हरि गुंण गाइ ।
रिदा कवल मैं राखि लुकाइ,
प्रेम गांठि दे ज्यूं छूटि न जाइ ।
अठ सिधि नव निधि नांव मंझारि,
कहै कबीर भजि चरन मुरारि ।। १२३ ॥

निरमल निरमल रांम गुंण गावै,सो भगता मेरे मनि भावै ॥टेक।।
जे जन लेहिं रांम कौ नाउं,ताकी मैं बलिहारी जांउं॥


(१२१) ख०-भगवंत भजन सहेत ।