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कबीर-ग्रंथावली

का सिधि साधि करौं कुछ नाही,
रांम रसांइन मेरी रसनां मांहीं ॥ टेक ॥
नहीं कुछ ग्यांन ध्यान सिधि जोग,ताथैं उपजै नांनां रोग ।।
का बन मैं बसि भये उदास,जे मन नहीं छाडै पासा पास ॥
सब कृत काच हरी हित सार,कहै कबीर तजि जग ब्यौहार॥१३०।।

जौ तैं रसनां रांम न कहिबौ,
तौ उपजत बिनसत भरमत रहिबौ ।। टेक ।।
जैसी देखि तरवर की छाया,प्रांन गयें कहु का की माया ॥
जीवत कछू न कीया प्रवांनां,मूवा मरम को काकर जांनांं ॥
कंधि काल सुख कोई न सोवै,राजा रं क दोऊ मिलि रोवै ॥
हंस सरोवर कँवल सरीरा,रांम रसांइन पीवै कबीरा ॥१३॥

 का नांगें का बांधे चांम,जौ नहीं चींन्हसि आतम-रांम ॥टेक।।
नागें फिरें जोग जे होई,बन का मृग मुकति गया कोई ॥
मुंड मुंडायैं जौ सिधि होई,स्वर्ग ही भेड़ न पहुंती कोई ॥
व्यंद राखि जे खेलै है भाई,तौ पुनरै कौण परंम गति पाई ॥
पढें गुनें उपजै अहंकारा,अधधर डूबे वार न पारा ।।
कहै कबीर सुनहु रे भाई,रांम नांम बिन किन सिधि पाई ॥१३२॥

 हरि बिन भरमि बिगूते गंदा ।
 जापैं जांऊ अपनपी छुडावण,ते बोधे बहु फंधा ॥ टेक॥
जोगी कहैं जोग सिधि नीकी,और न दूजी भाई ।
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर,ऐ जु कहै सिधि पाई ॥
जहाँ का उपन्या तहाँ बिलांना,हरि पद बिसया जबहीं।
पंडित गुंनी सूर कवि दाता,ऐ जु कहैं बड़ हंमहीं ।