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कबीर-ग्रंथावली

मीठो कहा जाहि जो भावै,
दास कबीर रांम गुंन गावै ॥ १४७ ।।

अब मैं रांम सकल सिधि पाई,
आंन कहूँ तो रांम दुहाई ॥ टेक ॥
इहिं चिति चापि सबै रस दीठा,
रांम नांम सा और न मीठा ।।
औरै रसि है है कफ गाता,
हरि-रस अधिक अधिक सुखदाता ।
दूजा बणिज नहीं कछू बापर,
रांम नांम दोऊ तत भाषर ।।
कहै कबीर जे हरि रस भोगी,
ताकूं मिल्या निरंजन जोगी ॥ १४८ ।।

रे मन जाहि जहां तोहि भावै,
अब न कोई तेरै अंकुस लावै ।। टेक ।।
जहां जहाँ जाइ तहां तहां रोमां,
हरि पद चीन्हि किया विश्रामा ॥
तन रंजित तब देखियत दोई,
प्रगट्यौ ग्यान जहां तहां सोई॥
लीन निरंतर वपु बिसराया,
कहै कबीर सुख सागर पाया ॥ १४ ॥

 बहुरि हम काहे कूं आवहिगे।
 बिछुरे पंचतत की रचना,तब हम रांमहिं पांवहिगे ॥ टेक ॥
पृथी का गुण पाणीं सोष्या,पांनों तेज मिलांवहिगे।