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कबीर-ग्रंथावली

तहुयां एक दुकांन रच्यो है,निराकार ब्रत साजै ।।
गगन हीं भाठी सींगी करि चूंगी,कनक कलस एक पावा ।
तहुवां चवैं अंमृत रस नीझर,रस ही मैं रस चुवावा ॥
अब तौ एक अनूपम बात भई,पवन पियाला साजा ।
तीनि भवन मैं एकै जोगी,कहौ कहां बसै राजा ॥
बिनर जांनि परणऊं परसोतम,कहि कबीर रंगि राता ।
यहु दुनियां कांइ भ्रमि भुलांनीं,मैं रांम रसांइन माता ॥१५३॥

  ऐसा ग्यांन बिचारि लै,लै लाइ लै ध्यांनां ।
  सुंनि मंडल मैं घर किया,जैसैं रहै सिचांनां ।। टेक ।। .
उलटि पवन कहाँ राखिये,कोई भरम बिचारै।
सांधै तीर पताल कूं,फिरि गगनहि मारै ।।
कंसा नाद बजाव ले, धुनि निमसि ले कंसा ।
कंसा फूटा पंडिता,धुनि कहां निवाला ।।
प्यंड परें जीव कहां रहै,कोई मरम लखावै ।
जीवत जिस घरि जाइये,ऊंधै मुषि नहीं आवै ।।
सतगुर मिलै त पाईये,ऐसी अकथ कहांणीं ।
कहै कबीर संसा गया,मिले सारंग पांणीं ॥ १५४ ।।

  है कोई संत सहज सुख उपजै,जाकौं जप तप देउ दलाली
  एक बूंद भरि देइ रांम रस,न्यूं भरि देइ कलाली ।। टेक ॥
काया कलाली लांहनि करिहूं,गुरू सनद गुड़ कीन्हा ।
कांम क्रोध मोह मद मंछर,काटि काटि कस दीन्हां ॥
भवन चतुरदस भाठी पुरई,ब्रह्म अगनि परजारी ।
मूंदे मदन सहज धुनि उपजी,सुखमन पोतनहारी ।।