पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२२३

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पदावली

नीझर झरै अंमी रस निकसै,तिहि मदिरावल छाका।
कहै कबीर यहु बास बिकट अति,ग्यांन गुरू ले बांका ॥१५५।।

  अकथ कहांणीं प्रेम की,कछू कहो न जाई ।
  गूंगे केरी सरकरा,बैठे मुसकाई ॥ टेक ।।
भोमि बिनां अरू बीज बिन,तरवर एक भाई ।
अनंत फल प्रकासिया,गुर दीया बताई ॥
मन थिर बैसि बिचारिया,रांमहि ल्यौ लाई ।
झूठी अनभै बिस्तरी,सब थोथी बाई ।।
कहै कबीर सकति कछु नांहीं,गुर भया सहाई ।
आंवण जांणी मिटि गई,मन मनहि समाई ॥ १५६ ।।

  संतो सो अनभै पद गहिये ।
  कला अतीत आदि निधि निरमल,
तांकू सदा बिचारत रहिये ॥ टेक ॥
सो काजी जाकौं काल न व्यापै,सो पंडित पद बूझै ।
सो ब्रह्मा जो ब्रह्म बिचारै,सो जोगी जग सूझै ॥
उदै न अस्त सूर नहीं ससिहर,ताकौ भाव भजन करि लीजै ।
काया थैं कछू दुरि बिचारै,तास गुरू मन धीजै ॥
जारयौ जरै न काट्यौ सूकै,उतपति प्रलै न आवै ।
निराकार अषंड मंडल मैं,पांचौं तत समावै ॥
लोचन अछित सबै अंधियारा,बिन लोचन जग सुझै।
पड़दा खोलि मिलै हरि ताकूं,जो या अरथहिं बूझै ॥
आदि अनंत उभै पख निरमल,द्रिष्टि न देख्या जाई ।
ज्वाला उठी प्रकास प्रजल्यौ,सीतल अधिक समाई ।।
एकनि गंध बासनां प्रगट,जग थैं रहै अकेला ।