पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२२५

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पदावली

  है कोई जगत गुर ग्यांनी,उलटि बेद बूझै।
  पांणीं में अगनि जरै,अंधरे कौं सूझै ॥ टेक ॥
एकनि दादुरि खाये पंच भवंगा,गाइ नाहर खायौ काटि काटि अंगा।।
बकरी बिघार खायौ,हरनि खायौ चीता ।
कागिल गर फांदियां,बटेरै बाज जीता ।।
मूसै मॅजार खायौ,स्यालि खायौ स्वांनां ।
आदि कौं आदेस करत,कहै कबीर ग्यांनां ।। १६० ।।

  ऐसा अदभुत मेरे गुरि कथ्या,मैं रह्या उभेषै ।
  मूसा हसती सौं लड़ै,कोई बिरला पेषै ॥ टेक ।।
मूसा पैठा बांबि मैं,लारै सापणि धाई।
उलटि मूसै सापणि गिली,यहु अचिरज भाई ।।
चींटी परबत अषण्यां,ले राख्यौ चौड़े।
मुर्गा मिनकी सूं लड़ै,झल पांणीं दौड़े ॥
सुरहीं चूंपै बछतलि,बछा दूध उतारै ।
'ऐसा नवल गुंणीं भया,सारदूलहि मारै ।।
भील लुक्या बन बीझ मैं,ससा सर मारै।
कहै कबीर ताहि गुर करौं,जो या पदहि बिचारै ।। १६१ ॥

  अवधू जागत नींद न कीजै।
काल न खाइ कलप नहीं ब्यापै,देही जुरा न छीजै ॥ टेक ॥
उलटो गंग संमुद्रहि सोखै,ससिहर सूर गरासै।
नव ग्रिह मारि रोगिया बैठे,जल मैं ब्यंब प्रकासै ।।
डाल गयां थें मूल न सूझै,मूल गयां फल पावा ।
बंबई उलटि शरप कौं लागी,धरणि महा रस खावा ॥