पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२३२

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पदावली

बंबूर की डरियां बनसी लैहूँ,सीयरा भूंकि भूंकि पाई ।।
आंब कै बौरे चरहल करहल,निषिया छोलि छोलि खाई।
मोरै आग निदाष दरी बल,कहै कबीर समझाई ।। १७७ ।।

  कहा करौं कैसै तिरौं,भौ जल अति भारी ।
  तुम्ह सरणा-गति केसवा,राखि राखि मुरारी ।। टेक ।।
घर तजि बन खंडि जाइये,खनि खइये कंदा ।
बिषै बिकार न छूटई,ऐसा मन गंदा ।।
बिष बिषिया की बासनां,तजौं तजी नहीं जाई ।
अनेक जतंन करि सुरझिहौं,फुनि फुनि उरझाई ॥
जीव अछित जोबन गया,कछू कीया न नीका ।
यहु हीरा निरमोलिका,कौडी पर बीका ।।
कहै कबीर सुनि केसवा,तूं सकल बियाफी ।
तुम्ह समांनि दाता नहीं,हंम से नहीं पापी ॥ १७८ ॥

  बाबा करहु कृपा जन मारगि लावो,ज्यूं भव बंधन षूटै ।
  जुरा मरन दुख फेरि करंन सुख,जीव जनम थैं छूटै ॥टेका।
सतगुर चरन लागि यौं बिनऊं,जीवनि कहां थैं पाई ।
जा कारनि हम उपजैं बिनसैं,क्यूं न कहौ समझाई ।।
आसा-पास षंड नहीं पाडै,यौं मन सुंनि न लूटै ।
आपा पर आनंद न बूझै,बिन अनभै क्यूं छूटै॥
कह्यां नं उपजै उपज्यां नहीं जांणैं,भाव अभाव बिहूनां ।
उदै अस्त जहां मति बुधि नांही,सहजि राम ल्यौ लीनां ।।
ज्यूं बिंबहि प्रतिबिंब समांनां,उदिक कुंभ बिगरांनां ।
कहै कबीर जांनि भ्रम भागा,जीवहि जीव समांनां ॥ १७६ ॥