पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४६
पदावली

   संतौ धोखा कासूं कहिये।
   गुंण मैं निरगुंण निरगुंण मैं गुंण है,
बाट छाडिं क्यूं बहिये ॥ टेक ।।
अजरा अमर कथै सब कोई,अलख न कथणां जाई ।
नाति सरूप बरण नहीं जाकै,घटि घटि रह्यौ समाई ॥
प्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई,वाकै आदि अरू अंत न होई ।
प्यंड ब्रह्मंड छाडि जे कथिये,कहै कबीर हरि सोई ॥ १८० ॥

   पषा पषी कै पेषणौं,सब जगत भुलांनां ॥
   निरपष होइ हरि भजै,सो साध सयांनां ॥ टेक ॥
ज्यूं पर सूं पर बंधिया,यूं बंधे सब लाई ।
जाकै आत्म द्रिष्टि है,साचा जन सोई॥
एक एक जिनि जांणियां,तिनहीं सच पाया।
प्रेम प्रीति ल्यौ लींन मन,ते बहुरि न आया ।
पूरे की पूरी द्रिष्टि,पूरा करि देखै ।
कहै कबीर कछु समझि न परई,या कछु बात अलेखै ॥१८१॥

   अजहूं न संक्या गई तुम्हारी,
नांहि निसंक मिले बनवारी ॥ टेक ॥
बहुत गरब गरबे संन्यासी,ब्रह्मचरित छूटी नहीं पासी ॥
सुद्र मलेछ बसैं मन मांहीं,आतमरांम सु चीन्ह्यां नाहीं ॥
संक्या डांइणि बसै सरीरा,ता कारणि रांम रमै कबीरा ॥१८२॥

   सब भूले हो पाष डि रहे,
तेरा बिरला जन कोई राम कहै ॥ टेक ॥
होइ अरोगि बूंटी घसि लावै,गुर बिन जैसैं भ्रमत फिरै ।