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कबीर-ग्रंथावली

  रांम मोहि सतगुर मिले अवेक कलानिधि,परम तत सुखदाई ।
  कांम अगनि तन जरत रही है,
हरि रसिं छिरकि बुझाई ॥ टेक ॥
दरस परस तैं दुरमति नासी,दीन रटनि ल्यौ आई ।
पाषंड भरंम कपाट खोलि कैं,अनभै कथा सुनाई ॥
यहु संसार गंभीर अधिक जल,को गहि लावै तीरां ।
नाव जिहाज खेवइया साधू,उतरे दास कबीरा ॥ १८६ ॥


  दिन दहूं चहूं कै कारणैं,जैसें सैबल फूले ।
  झूठी सूं प्रीति लगाइ करि,साचे कूं भूले ॥ टेक॥
जो रस गा सो परहसा,बिड़राता प्यारे ।
आसति कहूं न देखिहूं,बिन नांव तुम्हारे ।।
सांची सगाई रांम की,सुनि आतम मेरे ।
नरकि पडें नर बापुडे,गाहक जम तेरे ॥
हंस उड़या चित चालिया,सगपन कछू नांहों ।
माटी सूं माटी मेलि करि,पीछैं अनखांहीं ।।
कहै कबीर जग अंधला,कोई जन सारा ।
जिनि हरि मरम न जांणिया,तिनि किया पसारा ।। १६०॥

  माधौ मैं ऐसा अपराधो,तेरी भगति हेत नहीं साधो ॥टेक॥
कारनि कवन आइ जग जनम्यां,जनमि कवन सचुपाया।
भौ जल तिरण चरण च्यंतामंणि,ता चित घड़ी न लाया ॥
पर निंद्या पर धन परदारा,पर अपवादैं सूरा ।
ताथैं आवागवन होइ फुनि फुनि,ता पर संग न चूरा ॥
कांम क्रोध माया मद मंछर,ए संतति हंम मांहीं ।
दया धरम ग्यांन गुर सेवा,ए प्रभू सूपिनैं नांहीं ॥