पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२३७

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पदावली

तुम्ह कृपाल दयाल दमोदर,भगत-बछल भौ-हारी।
कहै कबीर धीर मति राखहु,सासति करौ हंमारी ॥ १६१ ॥

  रांम राइ कासनि करौं पुकारा,
ऐसे तुम्ह साहिब जाननिहारा ।। टेक ॥
इं द्रो सबल निबल मैं माधौ,बहुत करैं बरियाई ।
लै धरि जांहिं तहां दुख पइये,बुधि बल कछू न बसाई ॥
मैं बपरौ का अलप मूंढ मति,कहा भयौ जे लूटे ।
मुनि जन सती सिध अरु साधिक,तेऊ न आयैं छूटे ॥
जोगी जती तपी संन्यासी,अह निसि खोजैं काया ।
मैं मेरी करि बहुत बिगूते,विषै बाघ जग खाया ॥
ऐकत छांडि जाहिं घर घरनीं,तिन भी बहुत उपाया ।
कहै कबीर कछु समझि न परई,विषम तुम्हारी माया ॥१६२॥

  माधौ चले बुनांवन माहा,जग जीतें जाइ जुलाहा ॥टेक॥
नव गज दस गज गज उगनींसा,पुरिया एक तनाई ।
सात सूत दे गंड बहतरि,पाट लगी अधिकाई ॥
तुलह न तोली गजह न मापी,पहजन सेर अढाई ।
अढाई मैं जे पाव घटै तो,करकस करै बजहाई ॥
दिन की बेठि खसम सूं कीजै,अरज लगीं तहां ही।
भागी पुरिया घर ही छाड़ो,चले जुलाह रिसाई ॥
छोछी नलों कांमि नहीं आवै,लपटि रही उरझाई।
छांडि पसारा रांम कहि बौरे,कहै कबीर समझाई ॥ १६३ ॥

  बाजे जंत्र बजावै गुंनीं,राम नांम बिन भूली दुनी ॥टेक॥
रजगुन सतगुन तमगुन तीन,पंच तत ले साज्या बींन ।


१६१)ख--सो गति करहु हमारी ।