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कबीर-ग्रंथावली

तीनि लोक पूरा पेखनां,नाच नचावै एकै जनां ।
कहै कबीर संसा करि दूरि,त्रिभवन नाथ रहना भर पूरि॥ १६४ ॥

  जंत्री जंत्र अनूपम बाजै,ताका सबद गगन मैं गाजै ॥ टेक ॥
सुर की नालि सुरति का तूंबा,सतगुर साज बनाया ।
सुर नर गण गंध्रप ब्रह्मादिक,गुर बिन तिनहूं न पाया ।।
जिभ्या तांति नासिका करहीं,माया का मैंण लगाया ।
गमां बतीस मोरणां पांचौं,नीका साज बनाया ॥
जंत्री जंत्र तजै नहीं बाजै,तब बाजै जब बावै ।
कहै कबीर सोई जन साचा,जंत्री सूं प्रीति लगावै ॥ १६५ ॥

  अवधू नादैं ब्यंद गगन गाजै,सबद अनाहद बोलै ।
  अंतरि गति नहीं देखै नेड़ा,ढूंढत बन बन डोलै ।। टेक ।।
सालिगरांम तजौं सिव पूजौं,सिर ब्रह्मा का काटौं ।
सायर फोडि नीर मुकलांऊं,कुंवा सिला दे पाटौं ।।
चंद सूर दोइ तूंबा करिहूँ,चित चेतनि की डांडी ।
सुषमन तंती बाजण लागी,इहि बिधि त्रिष्णां षांडी ॥
परम तत आधारी मेरे,सिव नगरी घर मेरा ।
कालहि संसार डूं मीच बिहंडूं,बहुरि न करिहूँ फेरा ॥
जपौ न जाप हतौं नहीं गूगल,पुस्तक ले न पढांऊं ।
कहै कबीर परंम पद पाया,नहीं आंऊं नहीं जांऊं ॥१६६।।

बाबा पेड़ छाडि सब डाली लागे,मूंढ़े जंत्र अभागे ।
सोइ सोइ सब रैंणि बिहांणीं,भोर भयौ तब जागे ॥ टेक ॥
देवलि जाऊं तो देवी देखा,तीरथि जांऊ त पाणीं ।
ओछी बुधि अगोचर बांणीं,नहीं परंम गति जांणीं ।।