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कबीर-ग्रंथावली

जांस का सेवक तास कौं पाइहै,
इष्ट कौं छांडि आगै न जांहीं ।
गुंणमई मूरति सेइ सब भेष मिलि,
निरगुण निज रूप विश्रांम नांहीं ।
अनेक जुग बंदिगी बिबिध प्रकार की,
अंति गुंण का गुंण हीं समांहीं ।
पांच तत तीनि गुण जुगति करि सांनियां,
अष्ट बिन होत नहीं क्रंम काया।
पाप पुन बोज अंकूर जांमैं मरे,
उपजि बिनसै जेती सर्ब माया ।
क्रितम करता कहैं,परम पद क्यू लहैं,
भूलि भ्रम मैं पडया लोक सारा ।
कहै कबीर रांम रमिता भजैं, .
कोई एक जन गए उतरि पारा ॥ १६६ ॥

  रांम राइ तेरी गति जांणीं न जाई ।
  जो जस करिहै सो तस पइहै,राजा रांम नियाई ॥ टेक।
जैसी कहै करै जो तैसी,तौ तिरत न लागै बारा ।
कहता कहि गया सुनता सुंणि गया,करणीं कठिन अपारा ॥
सुरही तिण चरि अंमृत सरवैं,लेर भवंगहि पाई ।
अनेक जतन करि निग्रह कीजै,बिपै बिकार न जाई ।
संत करै असंत की संगति,तासूं कहा बसाई ।
कहै कबीर ताके भ्रम छूटै,जे रहे रांम ल्यौ लाई ॥२०॥

  कथणी बदणीं सब जंजाल,
भाव भगति अरु रांम निराल ॥ टेक ॥
कथै बदै सुणैं सब कोई,कथें न होई कीयें होइ ।।