पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२४३

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पदावली

जोगिया तन कौ जंत्र बजाइ,
ज्यूं तेरा आवागवन मिटाइ ॥ टेक ।।
तत करि तांति धर्म करि डांडी,सत की सारि लगाइ ।
मन करि निहचल आसंण निहचल,रसनां रस उपजाइ।।
चित करि बटवा तुचा मेषली,भसमैं भसम चढ़ाइ ।
तजि पाषंड पांच करि निग्रह,खोजि परम पद राइ ।।
हिरदै सींगी ग्यांन गुंणि बांधौ,खोजि निरंजन साचा ।
कहै कबीर निरंजन की गति,जुगति बिनां प्यंड काचा ॥२०८॥

 अवधू ऐसा ज्ञांन बिचारी,ज्यूं बहुरि न है संसारी ॥टेक॥
च्यंत न सोज चित बिन चितवै,बिन मनसा मन होई ।
अजपा जपत सुंनि अभि-अंतरि,यहु तत जानैं सोई ।।
कहै कबीर स्वाद जब पाया,बंक नालि रस खाया ।
अंमृत झरै ब्रह्म परकासै,तब ही मिलै रांम राया ॥२०६॥


 गोब्यं दे तुम्हारै बन कंदलि,मेरो मन अहेरा खेलै ।।
 बपुबाड़ी अनगु मृग,रचिहीं रचि मेलै ॥ टेक ।।
चित तरउवा पवन षेदा,सहज मूल बांधा।
ध्यांन धनक जोग करम,ग्यांन बांन सांधा ।।
षट चक्र कंवल बेधा,जारि उजारा कीन्हां ।
कांम क्रोध लोभ मोह,हाकि स्यावज दीन्हां ॥
गगन मंडल रोकि बारा,तहां दिवस न राती ।
कहै कबीर छांडि चले,बिछुरे सब साथी ॥ २१० ॥

 साधन कंचू हरि न उतारै,अनभै है तो अर्थ विचारै ।।टेक॥
बांणी सुंरंग सोधि करि आ़ंणौं,आंणौँ नौ रंग धागा ।