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कबीर-ग्रंथावली

चंद सुर एकंतरि कीया,सीवत बहु दिन लागा ।।
पंच पदार्थ छोड़ि समांनां,हीरै मोती जड़िया।
कोटि बरस लूं कंचूं सींयां,सुर नर धंधै पाड़या ।।
निस बासुर जे सोवैं नांही,ता नरि काल न खाई ।
कहै कबीर गुर परसादैं,सहजैं रहना समाई ॥ २११ ।।
 
 जीवत जिनि मारै मुवा मति ल्यावै,
मास बिहूंणां घरि मत आवै हो कंता ॥ टेक ॥
उर बिन पुर बिन चंच बिन,बपु बिहूंनां सोई ।
सो स्यावज जिनि मारै कंता,जाकै रगत मास न होई ।।
पैली पार के पारधी,ताकी धुनहीं पिनच नहीं रे ।
ता बेली को ढूंक्यौ मृग लौ,ता मृग कैसी सनहीं रे ।।
मारसा मृग जीवता राख्या,यहु गुर ग्यांन मही रे।
कहै कबीर स्वांमीं तुम्हारं मिलन कौं,बेली है पर पात नहीं रे।।२१२॥

 धीरौ मेरे मनवा तोहिं धरि टांगौं,
तैं तौ कीयौ मेरे खसम सूं षांगौं ॥टेक॥ .
प्रेम की जेवरिया तेरे गलि बांधूं ,
तहां ले जाउं जहाँ मेरौ माधौ ।।
काया नगरी पैसि किया मै बासा,
हरि रस छाडि बिषै रसि माता ।।
कहै कबीर तन मन का ओरा,
भाव भगति हरि सूं गठजोरा ॥२१३।।

 पारब्रह्म देख्या हो तत बाड़ीं फूली,फल लागा बडहूली।
 सदा सदाफल दाख बिजौरा कौतिकहारी भूली ॥टेक॥
द्वादस कूंवा एक बनमाली,उलटा नीर चलावै ।