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कबीर-ग्रंथावली

दिन दिन तन छीजै जरा जनावै,
केस गहें काल बिरदंग बजावै ॥
कहै कबीर करुणांमय आगैं,
तुम्हारी क्रिया बिना यहु बिपति न भागै ॥ २२३ ॥

कब देखूं मेरे राम सनेही,
जा बिन दुख पावै मेरी देहीं । टेक ॥
 हूँ तेरा पंथ निहारूं स्वांमीं,
कब रमि लहुगे अंतरजांमीं ।
जैसें जल बिन मींन तलपै,
ऐसै हरि विन मेरा जियरा कलपै ।।
निस दिन हरि बिन नींद न आवै,
दरस पियासी रांम क्यूं सचुपावै ।।
कहै कबीर अब बिलंब न कीजै,
अपनौं जानि मोहि दरसन दीजै ।। २२४ ॥

सो मेरा रांम कबै घरि आवै,ता देखें मेरा जिय सुख पावै ।।टेक॥
बिरह अगिनि तन दिया जराई,बिन दरसन क्यूं होइ सराई ।
निस बासुर मन रहै उदासा,जैसैं चातिग नीर पियासा ।।
कहै कबीर अति आतुरताई,हमकौं बेगि मिलौ रांमराई ॥२२५॥

 मैं सासने पीव गौंहनि आई।
सांईं संगि साध नहीं पूगी,गयौ जोबन सुपिनां की नांईं ॥टेक
पंच जना मिलि मंडप छायो,तीनि जनां मिलि लगन लिखाई ।
सखी सहेली मंगल गांव,सुख दुख माथै हलद चढ़ाई ॥