पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७८
कबीर-ग्रंथावली

  अंधे हरि बिन को तेरा,कवन सूं कहत मेरी मेरा ॥ टेक ॥
तजि कुलाक्रम अभिमांनां,झूठे भरमि कहा भुलांनां ।।
झूठे तन की कहा बडाई,जे निमष मोहि जरि जाई ।।
जब लग मनहि बिकारा,तब लगि नहीं छूटै संसारा ॥
जब मन निरमल करि जाना,तब निरमल माहिं समानां ॥
ब्रह्म अगनि ब्रह्म सोई,अब हरि बिन और न कोई ।।
जब पाप पुंनि भ्रंम जारी,तब भयौ प्रकास मुरारी ।।
कहै कबीर हरि ऐसा,जहां जैसा तहां तैसा ।।
भूलै भरमि परै जिनि कोई,राजा रांम करै सो होई ।। २६३ ॥

  मन रे ससौ न एको काजा,
{{gap}ताथै भज्यौ न जगपति राजा ॥ टेक ॥
बेद पुरांन सुमृत गुन पढि पढि,पढि गुनि मरम न पावा ।
संध्या गाइत्री अरु षट करमां,तिन थैं दूरि बतावा ।।
बनखंडि जाइ बहुत तप कीन्हां,कंद मूल खनि खावा ।
ब्रह्म गियांनीं अधिक धियांनीं,जम के पटैं लिखावा ॥ . .
रोजा किया निमाज गुजारी,बंग दे लोग सुनावा ।
हिरदै कपट मिलै क्यू सांई,क्या हज काबै जावा ॥
पहसौ काल सकल जग ऊपरि,मांहि लिखे सब ग्यांनी ।
कहै कबीर ते भये पालसै,रांम भगति जिनि जांनी ॥ २६४ ॥

  मन रे जब तैं राम कह्यौ,
पीछै कहिये कौं कछू न रह्यौ ॥ टेक ॥
का जोग जगि तप दांना,जौ तैं रांम नांम नहीं जांनां ॥
कांम क्रोध दोऊ भारे,ताथै गुरु.प्रसादि सब जारे ॥
कहै कबीर भ्रम नासी,राजा रांम मिले अबिनासी ॥ २६५ ।।