पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२६३

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पदावली

 रांम राइ सो गति भई हांमारी,मोपैं छूटत नहीं संसारी ।।टेक।।
ज्यूं पंखी उडि जाइ अकासां,आस रही मन मांहीं ।
छूटी न आस टूट्यौ नहीं फंधा,उडिबौ लागौ कांहीं ।।
जो सुख करत होत दुख तेई,कहत न कछू बनि आवै ।
कुंजर ज्यूं कसतूरी का मृग,आपै आप बँधावै ।।
कहै कबीर नहीं बस मेरा,सुनिये देव मुरारी ।
इत भैभीत डरौं जम दूतनि,आये सरनि तुम्हारी ।। २६६ ॥

  रांम राइ तूं ऐसा अनभूत अनूपम,तेरी अनभै थैं निस्तरिये ।
  जे तुम्ह कृपा करौ जगजीवन,तौ कतहूं भूलि न परिये ।।टेक।।
हरि पद दुरलभ अगम अगोचर,कथिया गुर गमि बिचारा ।
जा कारंनि हंम ढूंढत फिरते,आथि भरयो संसारा ।।
प्रगटो जोति कपाट खोलि दिये,दगधे जंम दुख द्वारा । .
प्रगटे विस्वनाथ जगजीवन,मैं पाय करत बिचारा ।।
देख्यत एक अनेक भाव है,लेखत जात अजाती।
बिह कौ देव तबि ढूंढत फिरते,मंडप पूजा पाती ।।
कहै कबीर करुणांमय किया,देरी गलियां बहु विस्तारा।
रांम के नांव परंम पद पाया,छूटे बिघन बिकारा ॥ २६७ ।।

 रांम राइ को ऐसा बैरागी,
हरि भजि मगन रहै विष त्यागी ॥ टेक ।।
ब्रह्मा एक जिनि सिष्टि उपाई,नांव कुलाल धराया।
बहु बिधि भाँडै उनहीं घड़िया,प्रभू का अंत न पाया ।
तरवर एक नांनां बिधि फलिया,ताकै मूल न साखा ।
भौजलि भूलि रह्या रे प्रांणीं,मो फल कदे न चाखा ॥
कहै कबीर गुर बचन हेत करि,और न दुनियां आथी।
माटी का तंन मांटीं मिलिहै,सबद गुरू का साथी ।। २६८ ॥