पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२६७

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पदावली

झूठे फोकट कलु मंझारा, राम कहैं ते दास नियारा ।।
भगति नारदी मगन सरीरा,
इहि बिधि भव तिरि कहै कबीरा ॥ २७८ ॥
रांम राइ इहि सेवा भल मांनैं,
जै कोई रांम नांम तत जांनैं ।। टेक ।।
रे नर कहा पषालै काया,सो तत चीन्हि जहां थैं आया ।।
कहा बिभूति जटा पट बाँधे,काजल पैसि हुतासन साधें ।।
र रांम मां दोई अखिर सारा,कहै कबीर तिहूं लोक पियारा ॥२७६॥

इहि विधि गंम सूल्यौ लाइ।
चरन पार्षे निरति करि, जिभ्या विनां गुण गाइ ॥ टेक ॥
जहां स्त्रांति बूदंन सीप साइर,सहजि मोती होइ ।
उन मोतियन मैं नीर पोयौ,पवन अंबर धोइ ।।
जहाँ धरनि बरपै गगन भीजै,चंद सूरज मेल ।
दोइ मिलि तहाँ जुड़न लागे,करत हंसा केलि ।।
एक बिरष भोतरि नदी चाली,कनक कलस समाइ ।
पंच सुवटा भाइ बैठे,उदै भई बनराइ ।।
जहाँ बिछट्यौ तहाँ लाग्यौ,गगन बैठौ जाइ।
जन कबीर बटाऊवा,जिनि मारग लियौ चाइ ॥ २८० ।।

ताथैं मोहि नाचित्रौ न आवै,मेरो मन मंदलान बजावै ।।टेक॥
उभर था ते सूभर भरिया,त्रिष्णां गागरि फूटी।
हरि चिंतत मेरौ मंदला भीनौं,भरम भोयन गयौ छूटी ।।
ब्रह्म अगनि मैं जरां जु ममिता,पाषंड अरू अभिमानां ।
काम चालना भया पुराना,मोपैं होइ न आना ॥ .
जे बहु रूप किये ते कीये,अब बहु रूप न होई ।
थाकी सौंज संग के बिछुरे,रांम नांम मसि धोई ॥