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कबीर-ग्रंथावली

  तेरा हरि नांमैं जुलाहा,मेरै रांम रमण का लाहा ।।टेक॥
दस सै सूत्र की पुरिया पुरी,चंद सूर दोइ साखी।
अनत नांव गिनि लई मंजूरी,हिरदा कवल मैं राखी ॥
सुरति सुमृति दोइ खूंटी कीन्हीं,आरंभ कीया बमेकी ।
ग्यांन तत की नली भराई,बुनित आतमा पेषो ॥
अबिनासी धंन लई मजूरी,पूरी थापनि पाई।
रन बन सोधि सोधि सब आये,निकटैं दिया बताई ।।
मन सूधा कौ कूच कियौ है,ग्यांन बिथरनीं पाई।
जीव की गांठि गुढी सब भागी,जहां की तहां ल्यौ लाई ।।
बेठि बेगारि बुराई थाकी,अनभै पद परकासा।
दास कबीर बुनत सच पाया,दुख संसार सब नासा ॥२८८॥

  भाई रे सकहु त तनि बुनि लेहु रे,
पीछें रांमहि दोस न देहु रे ।। टेक ।।
करगहि एक बिनांनी,ता भींतरि पंच परांनी ।।
तामैं एक उदासी,तिहि तणि बुणि सबै बिनासी ।।
जे तूं चौसठि बरियां धावा,नहीं होइ पंच सूं मिलावा ।।
जे तैं पांसै छसै तांणीं,तौ तूं सुख सूं रहै परांणीं ॥
पहली तणियां ताणां,पीछे बुणियां बांणां ।।
तणि बुणि मुरतब कीन्हां,तब रांम राइ'पुरा दीन्हां ॥
राछ भरत भइ संझा,तारुणी त्रिया मन बंधा ।।
कहै कबीर बिचारी,अब छोछी नली हंमारी ।। २८६ ।।

· वै क्यूं कासी तजैं मुरारी,तेरी सेवा चोर भये बनवारी ॥टेक॥
जोगी जंती तपी संन्यासी,मठ देवल बसि परसैं कासी ।।
तीन बार जे नित प्रति न्हांवै',काया भींतरि खबरि न पांवैं ॥