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कबीर-ग्रंथावली

अनहद कीं गुरी बाजी,तब काल द्रिष्टि भै भागी।
कहै कबीर रांम राया,हरि कैं रंगैं मूंड मुडाया ॥२६४॥

  कारनि कौंन संवारै देहा,यहु तन जरि बरित है है पेहा ॥टेक॥
चोवा चंदन चरचत अंगा,सो तन जरत काठ कै संगा ।
बहुत जतन करि देह मुट्याई,अगनि दहै कैजं बुक खाई ॥
जा सिरि रचि रचि बांधन पागा,ता सिरि चंच सँवारत कागा।।
कहि कबीर तन झूठा भाई,केवल रांम रह्यौ ल्यौ लाई ॥२६५॥

  धंन धंधा व्यौहार सब,माया मिथ्या बाद ।
पांणीं नीर हलूर ज्यूं,हरि नांव बिना अपवाद ।।टेक॥
इक रांम नांम निज साचा,चित चेति चतुर घट काचा ।।
इस भरमि न भूलसि भोली,बिधनां की गति है औली ।
जीवते कूं मारन धावै,मरते कौं बेगि जिलावै ।।
जाकै हुँहि जम से बैरी,सो क्यूं सोवै नींद घनेरी ।।
जिहि जागत नींद उपावै,तिहिं सोवत क्यूं न जगावै ॥
जलजंत न देखिसि प्रांनी,सब दीसै झूठ निदांनी ।।
तन देवल ज्यूं धज आछै,पड़ियां पछितावै पाछै ।।
जीवत ही कळू कीजै,हरि रांम रसांइन पीजै ।।
रांम नांम निज सार है,माया लागि न खाई ।
अंति कालि सिरि पोटली,ले जात न देख्या कोई ।।
कोई ले जात न देख्या,बलि विक्रम भोज प्रस्टा ॥
काहू के संगि न राखी,दीसै बीसल की साखी ।।
जब हंस पवन ल्यौ खेले,पसयौ हाटिक जब मेलै ।।
मानिख जनम अवतारा,ना है है बार बारा ।।
कबहूँ है किसा बिहांना,तर पंखी जेम उडांनां ॥
सब आप आप कूं जांई,को काहू मिलै न भाई ।।