पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२७९

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पदावली

कहाँ वै लोग कहां पुर पटण,बहुरि न मिलबौ आइ ।
कहै कबीर जगनाथ भजहु रे,जन्म अकारथ जाइ ॥ ३१५ ॥

रांम गति पार न पावै कोई।
च्यंतामणि प्रभु निकटि छाडि करि,
भ्रंमि भ्रंमि मति बुधि खोई ।। टेक ।।
तीरथ बरत जपै तप करि करि,बहुत भांति हरि सोधै ।
सकति सुहाग कहौ क्यूं पावै,अछता कंत बिरोधै ।।
नारी पुरिष वसैं इक संगा,दिन दिन जाइ अबोलै ।
तजि अभिमान मिलै नहीं पीव कुं,ढूंढत बन बन डालै ।
कहै कबीर हरि अकथ कथा है,बिरला कोई जांनैं॥
प्रेम प्रीति बेधी अंतर गति,कहूं काहि को मांनै ।। ३१६ ॥

रांम बिना संपार धंध कुहेरा,
सिरि प्रगट्या जंम का पेरा ॥ टेक ।।
देव पूजि पूजि हिंदू मूर्य, तुरक मूर्य हज जाई ।
जटा बांधि बांधि यागी मूर्य,इन मैं किनहूं न पाई ॥
कवि कवीनैं कविता मूये,कापड़ी के दारौं जाई ।
केस लूंचि लुंचि मूये बरतिया,इनमैं किनहूं न पाई ॥
धंन संचते राजा मूर्य,अरू ले कंचन भारी ।
बेद पढ़ें पढि पंडित मुये,रूप भूले मूई नारी ॥
जे नर जोग जुगति करि जांनैं,खोजैं आप सरीरा।
तिनकूं मुकति का संसा नाहीं,कहत जुलाह कबीरा ॥३१७॥

कहूं रे जे कहिबे की होइ ।
नां को जांनैं नां को मांनैं,ताथैं अचिरज मोहि ॥ टेका ।।
अपनें अपनें रंग के राजा,मांनत नांहीं कोइ ।
प्रति अभिमांन लोभ के घाले,चले अपन पौ खोइ ॥