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कबीर-ग्रंथावली

अब हम जगत गौंहन तैं भागे,
जग की देखि जुगति रांमहि ढूंरि लागे । टेक ॥
आयांन पनैं थै बहु बौरांने,संमझि परी तब फिरि पछितांनें ।।
लोग कहौ जाकै जो मनि भावै,लहैं भुवंगम कौन डसावै ॥
कबीर बिचारि इहै डर उरिये,कहै का हो इहां नै मरिये ॥३२४॥

[ राग भैरू ]
ऐसा ध्यान धरौ नरहरी,सबद अनाहद च्यं तन करी ।।टेक।।
पहली खोजौ पंचे बाइ,बाइ व्यंद ले गगन समाइ ।
गगन जोति तहाँ त्रिकुटो संधि,रवि ससि पवना मेलौ बंधि ।।
मन थिर होइत कवल प्रकासै,कवला मांहि निरंजन बासै ॥
सतगुर संपट खालि दिखावै,निगुरा होइ तौ कहां बतावै ।।
सहज लछिन ले तजौ उपाधि,आसण दिढ निद्रा पुनि साधि ॥
पुहप पत्र जहां हीरामणी,कहै कबीर तहां त्रिभवन धणों ॥३२५॥

इहि बिधि सेविये श्री नरहरी,मन की दुबिध्या मन परहरीग।।टेक॥
जहां नहीं जहां नहीं तहां कछू जाणि,जहां नहीं तहां लेहु पछाणि ॥
नांही देखि न जाइये भागि,जहां नहीं तहां रहिये लागि ॥
मन मंजन करि दसवै द्वारि,गंगा जमुना संधि बिचारि ।।
नादहि ब्यंद कि ब्यंदहि नाद,नादहि ब्यंद मिलै गौव्यंद ।।
देवी न देवा पूजा नहीं जाप,भाइ न बंध माइ नहीं बाप ।।
गुणातीत जस निरगुण आप,भ्रम जेवड़ी जग कीयौ साप ॥
तन नांहीं कब जब मन नांहि,मन परतीति ब्रह्म मन मांहि ।।
पंरहरि बकुला प्रहि गुन डार,निरखि देखि निधि वार न पार ।।
कहै कबीर गुर परम गियांन,सुंनि मंउल मैं धरौ धियांन ॥
प्यंड परें जीव जैहै जहाँ,जीवत ही ले राखौ तहां ॥३२६।।