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कबीर-ग्रंथावली

अंजन नाचै अंजन गावै,अंजन भेष अनंत दिखावै ॥
अंजन कहौं कहां लग केता,दान पुंनि तप तीरथ जेता ॥
कहै कबीर कोई बिरला जागै,अंजन छाडि निरंजन लागै ॥३३६॥

अंजन अलप निरं जनसार,यहै चीन्हि नर करहु बिचार ।।टेक।।
अंजन उतपति बरतनि लोई,बिना निरंजन मुक्ति न होई ॥
अंजन आवै अंजन जाइ,निरंजन सब घटि रह्यौ समाइ ।।
जोग ध्यांन तप सबै बिकार,कहै कबीर मेरे रांम अधार ॥३३७।।

एक निरंजन अलह मेरा,हिंदू तुरक दहूं नहीं नेरा ॥ टेक ॥
राखुं व्रत न महरम जांनां,तिसही सुमिरूं जो रहै निदांनं ।।
पूजा करूं न निमाज गुजारूं,एक निराकार हिरदै नमसकांरूं ॥
नां हज जांऊं न तीरथ पूजा.एक पिछाण्यां तौ क्या दूजा ।।
कहै कबीर भरम सब भागा,एक निरं जन सूं मन लागा ॥३३८।।

तहाँ मुझ गरीब की को गुदरावै,
मजलसि दृरिं महल को पावै ।। टेक ॥
सतरि सहस सलार हैं जाकै,असी लाख पैकंबर ताकै॥
सेख जु कहिय सहम अठ्यासी,छपन कोड़ि खेलिबे खासी ॥
कोड़ि तेतीसुं अरू खिलखांनां,चौरासी लख फिरै दिवांनां ।।
बाबा आदम पैं नजरि दिलाई,नबी भिस्त घनेरी पाई ।।
तुम्ह साहिब हम कहा भिखारी,देत जबाब होत बजगारी ॥
जन कबीर तेरी पनह समांनां,भिस्त नजीक राखि रहिमांनां ॥३३६॥

जौ जाचौं तो केवल रांम,आंन देव सूं नांहीं कांम ॥ टेक ॥
जाकै सुरिज कोटि करैं परकास,कोटि महादेव गिरि कविलास ।।
ब्रह्मा कोटि बेद ऊबरैं,दुर्गा कौटि जाकै मरदन करैं ।।
कोटि चंद्रमां गहैं चिराक,सुर तेतीसूं जीमैं पाक ||