पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/२८९

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पदावली

परहरि काम रांम कहि बैारे,सुनि सिख बंधू मारी।
हरि कौ नांव अभै-पद-दाता,कहै कबीरा कोरी ॥ ३४६ ॥

पांणीं थैं प्रगट भई चतुराई,गुर प्रसादि परम निधि पाई ॥टेक।।
इक पांणीं पांणीं कूं धोवै,इक पांणीं पांणीं कूं मोहै ।।
पांणीं ऊंचा पांणीं नींचा,ता पांणीं का लीजै सींचा ।।
इक पांणीं थैं प्यंड उपाया,दास कबीर रांम गुण गाया ॥३४७।।

भजि गोब्यंद भूलि जिनि जाहु,
मनिसा जनम कौ एही लाहु ।। टेक॥
गुर सेवा करि भगति कमाई,जौ तैं मनिषा देही पाई ।।
या देही कू लोचैं देवा सो देही करि हरि की सेवा ।।
जब लग जुरा रोग नहीं आया,तब लग काल प्रसै नहिं काया ।।
जब लग हींण पड़ै नहीं बांणीं,तब लग भजि मन सारंगपाणीं ।।
अब नहीं भजसि भजसि कब भाई,आवैगा अंत भज्यौ नहीं जाई ।।
जे कछू करौ सोई तत सार,फिरि पछितावोगे वार न पार ||
सेवग सो जो लागै सेवा,तिनहीं पाया निरंजन देवा ।।
गुर मिलि जिनि के खुले कपाट,बहुरि न आवै जांनीं बाट ।
यहु तेरा औसर यहु तेरी बार,घट ही भींतरि सोचि बिचारि ।।
कहै कबीर जीति भावै हारि,बहु बिधि कह्यौ पुकारि पुकारि ।।३४८।।

ऐसा ग्यांन बिचारि रे मनां,
हरि किन सुमिरै दुख भंजनां ।। टेक ॥
जब लग मैं मैं मेरी करै,तब लग काज एक नहीं सरै ।।
जब यहु मैं मेरी मिटि जाइ,तब हरि काज संवारै आइ ।।
जब लग स्यंघ रहै बन मांहि,तब लग यहु बन फूलै नाहिं ।।
उखटि स्याल स्यंघ खाइ,तब यहु फूलै सब बनराइ ।।