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कबीर-ग्रंथावली

जीत्या डूबै हारया तिरै,गुर प्रसाद जीवत ही मरै ॥
दास कबीर कहै समझाइ,केवल रांम रहं ल्यौ लाइ ।। ३४६ ॥

जागि रे जीव जागि रे ।
चोरन कौ डर बहुत कहत हैं,उठि उठि पहरै लागि रे ॥टेक।।
ररा करि टोप ममां करि बखतर,ग्यांन रतन करि षाग रे ।
ऐसें जो अजराइल मारै,मस्तकि आवै भाग रे ॥
ऐसी जागणीं जे को जागै,ता हरि देइ सुहाग रे ।
कहै कबीर जाग्या ही चहिये,क्या गृह क्या बैराग रे ॥ ३५० ॥

जागहु रे नर सोबहु कहा,जम बटपारैं रुंधे पहा ।।टेक।।
जागि चेति कछू करौ उपाइ,मोटा बैरी है जंमराइ ।
सेत काग आये बन मांहिं,अजहूँ रे नर चेतै नाहिं ॥
कहै कबीर तबै नर जागै,जंम का डंड मूंड मैं लागै ॥३५१।।

जाग्या रेनर नींद नसाई,चित चेत्यौ च्यं तामणि पाई ।। टेक ।।
सोवत सोवत बहुत दिन बीते,जन जाग्या तसकर गये रीते ।।
जन जागे का ऐसहि नांण,बिष से लागै बेद पुराण ।।
कहै कबीर अब सोवौं नाहि,रांम रतन पाया घट मांहि ॥३५२॥

संतनि एक अहेरा लाधा,मिग नि खेत सबनि का खाधा॥ टेक।।
या जंगल में पांचौं मृगा,एई खेत सबनि का चरिगा ।
पारधीपनौं जे साधै कोई,अध खाधा सा राखै सोई॥
कहै कबीर जो पंचौ मारै,आप तिरै और कूं तारै ।। ३५३ ॥

हरि कौ विलोवनौं बिलोइ मेरी माई,
ऐसैं बिलोइ जैसें तत न जाई ॥ टेक ॥
तन करि मटकी मनहि बिलोइ,ता मटकी मैं पवन समाइ ।