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कबीर-ग्रंथावली

क्यूं लीजै गढ़ बंका भाई,दोवर कोंट अरु तेवड़ खाई ।।टेक।।
कांम किवाड़ दुख सुख दरवांनीं,पाप पुंनि दरवाजा ।
क्रोध प्रधांन लोभ बड दूंदर,मन मैं वासी राजा ।।
स्वाद सनाह टोप ममिता का,कुबधि कमांण चढ़ाई।
त्रिसना तीर रहै तन भींतरि,सुबधि हाथि नहीं आई ।।
प्रेम पलोता सुरति नालि करि,गोला ग्यांन चलाया।
ब्रह्म अग्नि ले दिया पलीता,एकै चोट ढहाया ।।
सत संतोष ले लरनै लागे,तोरे दस दरवाजा ।
साध संगति अरु गुर की कृपा थैं,पकरयौ गढ़ कौ राजा ।।
भगवंत भीर सकति सुमिरण की,काटि काल की पासी।
दास कबीर चढ़े गढ़ ऊपरि,राज दियौ अबिनासी ॥ ३५६ ।।

रैंनि गई मति दिन भी जाइ,भवर उड़े बग बैठे आइ ॥टेक।।
काचै करवै रहै न पांनीं,हंस उड़या काया कुमिलांनीं ॥
थरहर थरहर कंपै जीव,ना जानूं का करिहै पीव ।।
कऊवा उड़ावत मेरी वहियां पिरांनी,

कहै कबीर मेरी कथा सिरांनी ॥ ३५० ।।



काहे कूं भीति बनांऊं टाटी,का जांनू कहाँ परिहै माटी । टेक।
काहे कूं मंदिर महल चिणांऊं,मूंवां पीछैं घड़ी एक रहण न पाऊं।।
काहे कूं छांऊं ऊंच उंचेरा,साढ़े तीनि हाथ घर मेरा ॥
कहै कबीर नर गरब न कीजै,जेता तन तेती भुंइ लीजै ॥३६१॥

[ राग बिलावल ]


बार बार हरि का गुण गावै,गुर गमि भेद सहर का पावै ।।टेक॥
आदित करै भगति आरंभ,काया मंदिर मनसा थंभ ॥
अखंड अहनिसि सुरष्या जाइ,अनहद बेन सहज मैं पाइ॥