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कबीर-ग्रंथावली

 .पारोसनि मांगै कंत हमारा,
पीव क्यूं बौरी मिलहि उधारा ॥ टेक ॥
मासा मांगै रती न देऊ,घटै मेरा प्रेम तौ कासनि लेऊं ॥
राखि परोसनि लरिका मोरा,जे कछु पाऊं सु आधा तोरा ॥
बन बन हूँढौं नैन भरि जाऊं,पीव न मिलै तौ बिलखि करि रोऊं ॥
कहै कबीर यहु सहज हमारा,बिरली सुहागनि कंत पियारा ॥३७१॥
  रांम चरन जाकै रिदै बसत है,ता जंन को मन क्यूं डोलै ।।
  मानौं अठ सिध्य नव निधि ताकै,हरषि हरषि जस बोलै ।।टेक।।
जहां जहां जाइ तहां सच पावै,माया ताहि न झोलै ।
बारंबार बरजि बिषिया तै',लै नर जौ मन तोलै ।।
ऐसी जे उपजै या जीय कै,कुटिल गांठि सब खोलै ।
कहै कबीर जब मन परचौ भयौ,रहै रांम कै बोलै ॥३७२।।
  जंगल मैं का सांवनां,औघट है घाटा ।
  स्यंघ वाघ गज प्रजलै,अरु लंबी बाटा ।। टेक ।।
निस बासुरि पेड़ा पड़ै,जमदांनी लुटै ।
सूर धीर साचै मतै,सोई जन छूटै ॥
चालि चालि मन माहरा,पुर पटण गहिये ।
मिलिये त्रिभुवन नाथ सूं,निरभै होइ रहिये ।
अमर नहीं संसार मैं,बिनसै नर-देही ।।
कहै कबीर बेसास सूं,भजि रांम सनेही ॥ ३७३ ॥

[ राग ललित ]

  रांम ऐसौ ही जांनि जपौ नरहरी,
माधव मदसुदन बनवारी ॥ टेक ॥
अनदिन ग्यांन कथै घरियार,धूंवां धौलह रहै संसार ।
जैसें नदी नाव करि संग,ऐसैं हीं मात पिता सुत अंग ॥