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कबीर-ग्रंथावली

मैं किहि गुहराऊं पाप लागि,तू करी डर बड़े बड़े गये हैं भागि॥
ब्रह्मा विष्णु अरु सुर मयंक,किहि किहि नहीं लावा कलंक ।।
जप तप संजम सुंचि ध्यान,बंदि परै सब सहित ग्यांन ।
कहि कबीर उबरे द्वै तीनि,जा परि गोबिंद कृपा कीन्ह ॥३८५॥

ऐसौ देखि चरित मन मोह्यौ मोर,
ताथैं निस बासुरि गुन रमौं तोर ॥टेक।।
इक पढ़हिं पाठ इक भ्रमैं उदास,इक नगन निरंतर रहैं निवास ॥
इक जोग जुगति तन हूंहिं खींन,ऐसैं रांम नांम संगिरहैं न लीन॥
इक हूंहि दीन इक देहि दान,इक करें कलापी सुरा पांन ॥ .
इक तंत मंत ओषध बांन, इक सकल सिध राखें अपान ॥.
इक तीर्थ व्रत करि काया जीति,ऐसै रांम नामसूं करैं न प्रीति ।।
इक धोम घोटि तन हूंहि स्यांम,यूं मुकति नहीं बिन रांम नाम ।।
सत गुर तत कह्यौ बिचार,मूल गह्यौ अनभै बिसतार ।।
जुरा मरण थैं भये धोर,रांम कृपा भई कहि कबीर ॥३८६॥

सब मदिमाते कोई न जाग,
ताथैं संग ही चोर घर मुसन लाग ।।टेक।।
पंडित माते पढ़ि पुरांन,जोगी माते धरि धियांन ।।
संन्यासी माते अहंमेव,तपा जु माते तप कै भेव ।।
जागे सुक उधव अकूर,इणवंत जागे लै लंगूर ।।
संकर जागे चरन सेव, कलि जागे नामां जै देव ।।
ए अभिमांन सब मन के कांम,ए अभिमांन नहीं रही ठांम ।।
आतमां रांम कौ मन विश्रांम,कहि कबीर भजि रांम नांम ॥३८७॥

'चलि चलि रे भवरा कवल पास,भवरी बोलै अति उदास ।टेक।
तैं अनेक पुहप कौ लियौ भोग,सुख न भयो तब बढ़यौ है रोग ॥
हौं ज कहत तोसूं बार बार,मैं सब बन सोध्यौ डार डार ।।