पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३०७

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(३)रमैणी

[राग सूहै।]


तू तकल गहगरा, सफ सफा दिलदार दीदार ॥
तरी कुदरति किनहूं न जानी, पीर मुरीद काजी मुसलमानों ।।
देवी देव सुर नर गण गंवा, ब्रह्मा देव महेसुर ॥

तरी कुदरति तिनहूँ न जानी ।। टेक ।।
काजी सा जो काया बिचारे, तेल दीप मैं बाती जारै ।।
तेल दीप मैं बाती रहे, जोति चीह्नि जे काजी कहै ।।
मुलनां बंग देइ सुर जानां, आप मुसला बैठा तांनी ॥ .
आपुन मैं जे करै निवाजा, सो मुलनां सरबत्तरि गाजा ॥
मेष सहन में महल उठावा, चंद सूर विचि तारी लावा ।।
.अर्ध उर्ध विचि अंानि उतारा, सोई सेप तिहूं जोक पियारा ।
जंगम जोग बिचारै जहूंबां, जीव सीव करि एकै ठऊवां ।।
चित चेतनि करि पूजा लावा, नेते। जंगम नांउ कहावा ।।
जोगी भमम करै भैी मारी, सहज गहै विचार विचारी ॥
अनभै घट परचा सू बोलै, सो जोगी निहचल कदे न डोलै ॥
जैन जीव का करहु उबारा, कोंग्ग जीव का करहु उधारा ।।
कहां बसे चौरासी का देव, लही मुकति जे जांनौं भेव ।।
भगता तिरण मतै संसारो, तिरण तत ते लेहु बिचारी ॥
प्रोति जानि रांम जे कहै, दास नांउ सो भगता लहै ।।
पंडित चारि बेद गुंण गावा, आदि अंति करि पूत कहावा ।।
उतपति परलै कही बिचारी, संसा घालौ सबै निवारी ॥