[ सतपदी रमणी]
कहन सुनन को जिहि जग कीन्हा, जग भुलांन सो किनहूं न चीन्हां ।
सत रज तम थें कीन्हीं माया, प्रापण मांझे आप छिपाया ।।
ते ती पाहि अनंद सरूपा, गुन पल्लव विस्तार अनूपा ।।
साखा तत थें कुमम गियांना. फल सो आछा राम का नामां ।।
झझा उरभि सुरझि नहीं जाना, रहि मुखि झझवि झझखि परवाना ।
कत झषि झपि औरनि समझावा झगरौ कीये झगरिवी पावा ॥
नना निकटि जु घटि रहै, दूरि कहाँ तजि जाइ ॥
___जा कारणि जग ढूंढियो, ने. पायो ताहि ॥
टटा विकट घाट है माहीं, खालि कपाट मही ठ जब जाहीं।।
रहै लपटि जहि घटि परयो आई. देखि अटल टलि कतहुं न जाई ।।
ठठा ठौर दरि ठग नीरा, नीटि नीठि मन कीया धीरा ॥
जिहि ठगि ठगि सकल जग मावा, से ठग ठग्यो ठौर मन अावा ॥ .
डडा डर उपजै डर जाई, डरही मैं डर रह्यो समाई ॥
जो डर डरै तो फिरि डर लागै, निडर होह नौ इरि डर भागै॥
ढढा ढिग कत ढूढे श्राना, ढूढत ढूंढत गये पराना॥
चढि सुमेर दूढि जग श्रावा, जिहि गढ गड्या सुगढ मैं पावा ।।
णणारि णरूं तो नर नाहीं करे, ना फुनि नवे न संचरै ॥
धनि जनम ताहीं को गिणां, मेरे एक तजि जाहि घणां ॥
तता अतिर तिस्यों नहीं गाई, तन त्रिभुवन मैं रह्यो समाई ॥
जे त्रिभुवन तन मोहि समावै, तो ततै नन मिल्या सचुपावै॥
थथा अथाह थाह नहीं पावा, वो अथाह यहु थिरि न रहांवा ।।
थोरै थलि थानै पार भै, तो बिनहीं थ भै मदिर थमै ॥
ददा देखि जुरे विनसन हार, जस न देखि तस राखि विचार ।।
दसवै द्वारि जब कुंची दीजै, तब दयाल को दरसन कीजै ॥
धधा अरधै उरध न बेरा, अर) उरधै मझि बसेरा ॥
अरधै स्यागि उरध जब पावा, तब उरधै छोडि परध कत धावा ॥
नना निस दिन निरखत जाई, निरखत नैन रहे रतवाई॥
निरखत निरखत जब जाइ पावा, तब ले निरखै निरख मिलावा ॥
पृष्ठ:कबीर ग्रंथावली.djvu/३०९
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रमैंणी