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कबीर-ग्रंथावली

भले रे पोच औसर जब आवा,करि सनमांन पूरि जम पावा ।।
दांन पुंन्य हम दिहूं निरासा,कव लग रहूँ नटारंभ काछा ॥
फिरत फिरत सब चरन तुरांनै,हरि चरित अगम कथै को जांनै ।।
गण गंध्रप मुनि अंत न पावा,रहयौ अलख जग धधै लावा ॥
इहि बाजी सिव बिर चिभुलांना,और बपुरा को क्यंचित जांनां ।।
त्राहि त्राहि इम कीन्ह पुकारा,राखि राखि साई इहि बारा ।।
कोटि ब्रह्मंड गहि दीन्ह फिराई,फल कर कीट जनम बहुताई ॥
ईस्वर जोग खरा जब लीन्हां,टरयौ ध्यांन तप खंड न कीन्हां ।।
सिध साधिक उनथै कहु कोई,मनचित अस्थिर कहु कैसैं होई ॥
लीला अगम कधै को पारा,बसहु समींप कि रहौ निनारा ॥
खग खोज पीछैं नहीं,तूं तत अपरंपार।
बिन परचै का जांनिय,सब झूठे अहंकार ।।
अलख निरंजन लखै न कोई,निरभै निराकार है साई ।।
सुंनि असथूल रूप नहीं रेखा,द्रिष्टि प्रद्रिष्टि छिप्यौ नहीं पेखा ।।
बरन अबरन कथ्यौ नहीं जाई,सकल अतीत घट रहयौ समाई ।।
आदि अंति ताहि नहीं मधे,कथ्यौ न जाई पाहि अकथे ।।
अपर पार उपजै नहीं बिनसै,जुगति न जानियैं कथिये कैसें ॥
जस कथिये तस होत नहीं,जस है तैसा सोइ ।
कहत सुनत सुख उपजै,अरु परमारथ होइ ।।
जांनसि नहीं कम कथसि अयांनां,हम निरगुन तुम्ह सरगुन जांनां।।
मति करि हींन कवन गुन आंहीं,लालचि लागि आसिरै रहाई ।।
गुंन अरु ग्यांन दाऊ हम हींनां,जैसी कुछ बुधि बिचार तस कीन्हां॥
हम मसकीन कछू जुगति न आवे,जे तुम्ह दरवौ तौ पूरिजन पावै।।
तुम्हारे चरन कवल्ल मन राता,गुन निरगुन के तुम्ह निज दाता॥
जहुवां प्रगटि वजावहु जैसा,जस अनभै कथिया तिनि तैसा ॥
बाजै मंत्र नाद धुनि होईं,जे बजावै सो औरै कोई।।