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कबीर-ग्रंथावली

जब लग है यहु निज तन सोई,तब लग चेति न देखै कोई ।।
जब निज चलि करि किया पयांना,भयौ अकाज तब फिरि पछिताना।।
मृगत्रिष्णां दिन दिन ऐसी,अब गोहि कछु न सुहाइ ।
अनेक जतन करि टारिये,करम पासि नहीं जाइ ।।
रे रे मन बुधिवंत भंडारा,आप आप ही करहु बिचारा॥
कवन सयांन कौंन बौराई,किहि दुख पइये किहि दुख. जाई ।।
कवन हरिख कौ विष मैं जांनां,को अनहित को हित करि मांनां ।।
कवन सार को प्राहि असारा,को अनहित को प्राहि पियारा ॥
कवन माच कवन है झूठा,कवन करू' को लागै मीठा ।।
किहि जरियै किहि करिये अनंदा,कवन मुकति का गल के फंदा ।।
रे रे मन मोहि व्यौरि कहि,हौं तत पूछौँ तोहि ।
संसै सूल सबै भई,समझाई कहि माहि ।।
सुंनि हंसा मैं कहूं विचारी,त्रिजुग जानि सबै अंधियारी ।।
मनिषा जन्म उत्तिम जौ पावा.जांनूं रांम तैा सयांन कहावा ।।
नहीं चेतैतौ जनम गंमावा,परपौं बिहांन तब फिरि पछतावा ।।
सुख करि मूल भगति जौ जांनैं,और सबै दुख या दिन आंनैं ।
अंमृत केवल रांम पियारा,और सबै विष के भंडारा ॥ .
हरिख आहि जौं रमियैं रांमां,और सबै बिसमां के कांमां ॥
सार आहि संगति निरवानां,और सबै असार करि जांनां ॥
अनहित आहि सकल संसारा,हित करि जांनियैं रांम पियारा॥
साच सोई जं थिरह रहाई,उपजै बिनसै झूठ है जाई ।।
मींठा सो जो सहजैं पावा,अति कलेस थैं करू कहावा ।।
नां जरियै नां कीजै मैं मेरा,तहाँ आनंद जहां राम निहोरा ॥
मुकति सोज आपा पर जांनैं,सो पद कहा जु भरमि भुलांनैं ।।
प्रांननाथ जग जीवनां,दुरलभ रांम पियार ।
सुत सरीर धन प्रग्रह कबीर,जीये रे तर्वर पंख बसियार ॥