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रमैणी

रे रे जीय अपनां दुख न संभारा,जिहिं दुख ब्याप्या सब संसारा।।
माया मोह भूले सब लोई,क्यंचित लाभ मांनिक दोयौ खोई ।।
मैं मेरी करि बहुत बिनूता,जननीं उदर जन्म का सुता ।।
बहुतैं रूप भेष बहु कीन्हां,जुरा मरन क्रोध तन खीनां ॥
उपजै बिनसै जोनि फिराई,सुख कर मूल न पावै चाही ।।
दुख संताप कलेस बहु पावै,सो न मिलै जे जरत बुझावै ॥
जिहि हित जीव राखिहै भाई,सो अनहित है जाइ बिलाई ।।
मोर तोर करि जरे अपारा,मृग त्रिष्णां झूठी संसारा ॥
माया मोह झूठ रहयौ लागी,का भयौ इहाँ का हैहै आगी ।।
कछु कछु चेति देखि जीव अबही,मनिषा जनम न पावै कबही ।।
मार आहि जे संग पियारा,जब चेतै तब ही उजियारा ॥
त्रिजुग जोनि जे आहि अचेता,मनिषा जनम भयौ चित चेता।।
आतमां मुरछि मुरछि जरि जाई,पिछले दुख कहतां न सिराई ॥
सोई त्रास जे जांनै हंसा,तौ अजहूं न जीव करै संतोसा ।।
भौसार अति वार न पारा,ता तिरबे का करहु विचारा ॥
जा जल की आदि अंति नही जांनियैं,ताकौ डर काहे न मानियैं ।
को बांहिथ का खेवट आही,जिहिं तिरिये सो लीजै चाही ।।
ममझि बिचारि जीव जब देखा,यहुस सार सुपन करि लेखा ।
भई बुधि कछू ग्यांन निहारा,आप आप ही किया विचारा ।।
आपण मैं जे रह्यौ समाई,नेडै दूरि कथ्यौ नहीं जाई ॥
ताकं चीन्हैं परची पावा,भई समझि तासूं मन लावा ।।
भाव भगति हित बोहिथा,सतगुर खेवनहार ।
अलप उदिक तब जांणिये,जब गोपदखुर बिस्तार ॥३॥
[ दुपदी रमैंणी ]
भया दयाल विषहर जारे जागा,गहगहान प्रेम बहु लागा ।
भया अनंद जीव भये उल्हासा,मिले रांम मनि पूगी आसा ॥