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कबीर-ग्रंथावली

जदपि रह्या सकल घट पूरी, भाव बिना अभि-अंतरि दूरी ।
लोभ पाप दाऊ जरै निरासा, झूटै भूठि लागि रही आसा ॥
जहुवा है निज प्रगट बजावा, सुख संतोष तहां हम पावा ।।
नित उठि जस कीन्ह परकासा, पावक रहै जैसै काष्ट निवासा॥
बिना जुगति कैसै मथिया जाई, काष्टै पावक रह्या समाइ ॥
कष्टै कष्ट अग्नि पर जरई, जारै दार अग्नि समि करई ।।
ज्यूं राम कहैं ते रामै होई, दुख कलेस घालै सब खोई ।।
जन्म के कलि बिष जांहिं बिलाई, भरम करम का कछु न बसाई॥
भरम करम दोऊ बरतै लोई, इनका चरित न जानें कोई ।।
इन दाऊ संसार भुलावा, इनके लागे ग्यांन गंवावा ।।
इनकौ मरम पै सोई विचारी, मदा अनंद लै लीन मुरारी ॥
ग्यांन द्रिष्टि निज पेखै जोई, इनका चरित जानै पै सोई ।।
ज्यूं रजनी रज देखत अंधियारी, उसे भुवंगम बिन उजियारी ।।
तारे अगिनत गुनहिं अपारा, तऊ कछू नहीं होत अधारा ।
झूठ देखि जीव अधिक डराई, बिनां भवंगम डसी दुनियाई ।
झूठै झूठ लागि रही आसा, जेठ मास जैसे कुरंग पियासा ।।
इक त्रिषाव त दह दिसि फिर आवै, झूठै लागा नीर न पावै ।।
इक त्रिपाव त अरु जाइ जराई, झूठी आस लागि मरि जाई ।।
नीझर नीर जांनि परहरिया, करम के बांधे लालच करिया ।
कहै मोर कछू आहि न वाही, भरम करम दोऊ मति गवाई ।।
भरम करम दाऊ मति परहरिया, झूठै नांऊ माच ले धरिया ॥
रजनी गत भई रवि परकासा, भरम करम धूं केर चिनासा ।
रवि प्रकास तारे गुन खींचना आचार व्यौहार न सब भयं मलीनां ।।
विप के दाधे विष नहीं भावै, जरत जरत सुखसागर पावै ॥
अनिल झूठ दिन धावै आसा, अंध दुरगंध सहै दुख त्रासा ॥
इक त्रिपाव त दुसरै रवि तपई, दह दिसि ज्वाला चहुं दिसि जराई।